श्री देवांशु गोस्वामी जी महाराज की संगीतमय अमृतवाणी से भक्तगण श्री राम कथा में भावविभोर हो रहे है

कपूरथला, 18 अप्रैल

प्राचीन श्री राधा कृष्ण रानी साहिबा मंदिर कपूरथला प्रांगण में श्री राम कथा  में श्री देवांशु गोस्वामी जी महाराज की संगीतमय अमृतवाणी से भक्तगण भावविभोर हो रहे है, श्री देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने चित्रकूट लीला प्रसंग, दशरथ शोक, भरत मिलाप की कथा से भक्तगण को भावविभोर किया।  श्री देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने कहा कि श्री राम के 14 वर्ष वनवास यात्रा के बारे में  भरत सीधे माता के- कैकई और राम भैया को ढूंढते हुए उनके कक्ष में जाते हैं। उन्हें इसका आभास तक नहीं होने दिया कि उनके प्राण प्रिय भैया और भाभी 14 वर्ष के बनवास को अयोध्या से निकल गए। जानकारी होते ही वे रोते बिलखते और कैकई माता को कोसते हुए कहते हैं पुत्र कुपुत्र हो सकता है मगर माता कुमाता नहीं होती। इस बात को तुमने सिद्ध किया है माता कुमाता होती है। यह कलंक यह पाप मेरे सर पर लगा। लोग क्या कहेंगे। भरत ने अपने भाई को राजगद्दी के लिए बनवास करा दिया। तभी कौशल्या और सुमित्रा दोनों भरत को समझाती है कि पिताजी अब इस दुनिया में नहीं रहे। आओ उनका अंतिम संस्कार कर भैया को ढूंढने जाएंगे। राजा दशरथ की मृत्यु की खबर सुनकर भरत रोने लगते हैं। श्री देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने कहा कि कर्म पूरा कर अयोध्या से अपनी तीनों मां के साथ अपने भाई को वापस लाने के लिए निकल पड़ते हैं। पीछेपीछे प्रजा चल पड़े। निषाद राज से जानकारी लेकर भरत अपने माताओं के साथ चित्रकूट पर्वत पर जाते हैं। जहां लक्ष्मण जंगल से लकड़ियां चुन रहे थे। जैसे ही चक्रवर्ती सेना और भरत को आते देखा। आग बबूला होकर राम के पास आते हैं और कहते हैं कि भरत बड़ी सेना के साथ हमारी ओर बढ़ रहा है। तभी राम मुस्कुराते हुए कहते हैं ठहर जाओ। अनुज भरत को आने तो दो। भरत राम के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगते हैं। फिर राम गले से लगाते हैं। भरत मिलाप के बाद तीनों माताओं का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते हैं और माता सीता भी अपनी तीनों सास के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेती हैं। उसके बाद भरत पिता के बारे में राम से कहते हैं कि अब हमारे बीच पिता श्री नहीं रहे यह शब्द सुनकर श्री राम और सीता लक्ष्मण व्याकुल हो शोकाकुल रहने के बाद राम को अपने साथ ले जाने के लिए भरत मिन्नतें करते हैं। मंत्री सुमंत और प्रजा गण बारबार उन्हें अपने साथ जाने के लिए मनाते हैं। मगर श्री राम कहते हैं कि पिता के दिए हुए वचन का मर्यादा नहीं टूटे। इसके लिए हमें यहां रहने की अनुमति दें। रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाए पर वचन जाई। यह कहकर लेने आए सभी लोगों को चुप करा देते हैं मगर भरत मानने के लिए तैयार नहीं होते हैं। तब राम ने कहा प्रजा हित के लिए तुम्हें जाओ, अयोध्या के प्रजा जनों को देखना है। साथ में माताओं का भी दायित्व निर्वाह करना है। भरत ने श्री राम के चरण पादुका को अपने सर पर उठाकर आंखों में अश्रु के साथ वहां से विदा होते हैं। 14 वर्ष तक श्री राम के चरण पादुका को अयोध्या के राज सिंहासन पर रखकर खुद जमीन पर चटाई बिछाकर सन्यासी का जीवन व्यतीत करते हुए राजपाट संभालते हैं। श्री देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने कहा कि चित्रकूट लीला प्रसंग है, रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥श्री रामचन्द्रजी ने कहा- लक्ष्मण! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मणजी ने पयस्विनी नदी के उत्तर के ऊँचे किनारे को देखा और कहा कि इसके चारों ओर धनुष के जैसा एक नाला फिरा हुआ है॥ नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना॥चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी॥ नदी (मंदाकिनी) उस धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) है और शम, दम, दान बाण हैं। कलियुग के समस्त पाप उसके अनेक हिंसक पशु (रूप निशाने) हैं। चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी है, जिसका निशाना कभी चूकता नहीं और जो सामने से मारता है॥अस कहि लखन ठाउँ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा॥रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना॥ऐसा कहकर लक्ष्मणजी ने स्थान दिखाया। स्थान को देखकर श्री रामचन्द्रजी ने सुख पाया। जब देवताओं ने जाना कि श्री रामचन्द्रजी का मन यहाँ रम गया, तब वे देवताओं के प्रधान थवई (मकान बनाने वाले) विश्वकर्मा को साथ लेकर चले॥कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥ सब देवता कोल-भीलों के वेष में आए और उन्होंने (दिव्य) पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिए। दो ऐसी सुंदर कुटिया बनाईं जिनका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुंदर छोटी सी थी और दूसरी बड़ी थी॥ लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥ लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी सुंदर घास-पत्तों के घर में शोभायमान हैं। मानो कामदेव मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसंत ऋतु के साथ सुशोभित हो॥ अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥ उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आए और श्री रामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। देवता नेत्रों का लाभ पाकर आनंदित हुए॥ बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥ फूलों की वर्षा करके देव समाज ने कहा- हे नाथ! आज (आपका दर्शन पाकर) हम सनाथ हो गए। फिर विनती करके उन्होंने अपने दुःसह दुःख सुनाए और (दुःखों के नाश का आश्वासन पाकर) हर्षित होकर अपने-अपने स्थानों को चले गए॥चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥ श्री रघुनाथजी चित्रकूट में आ बसे हैं, यह समाचार सुन-सुनकर बहुत से मुनि आए। रघुकुल के चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी ने मुदित हुई मुनि मंडली को आते देखकर दंडवत प्रणाम किया॥मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं॥सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं॥  मुनिगण श्री रामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिए आशीर्वाद देते हैं। वे सीताजी, लक्ष्मणजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखते हैं और अपने सारे साधनों को सफल हुआ समझते हैं॥ जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद।करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने यथायोग्य सम्मान करके मुनि मंडली को विदा किया। (श्री रामचन्द्रजी के आ जाने से) वे सब अपने-अपने आश्रमों में अब स्वतंत्रता के साथ योग, जप, यज्ञ और तप करने लगे॥यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥यह श्री रामजी के आगमन का समाचार जब कोल-भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घर ही पर आ गई हों। वे दोनों में कंद, मूल, फल भर-भरकर चले, मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों॥ तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहिं मगु जाता॥कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई॥उनमें से जो दोनों भाइयों को (पहले) देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी की सुंदरता कहते-सुनते सबने आकर श्री रघुनाथजी के दर्शन किए॥करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यन्त अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहाँ के तहाँ मानो चित्र लिखे से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है॥राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिंकर जोरी॥श्री रामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार-बार प्रभु श्री रामचन्द्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं, अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।भाग हमारें आगमनु राउर ,इस अवसर पर मंदिर वेल्फेयर सोसायटी के प्रधान मोहित अग्रवाल व महासचिव शशि पाठक, वरुण शर्मा, अजीत कुमार, विक्रम गुप्ता, साहिल गुप्ता, वालिया, मोनू खन्ना, सुदेश अग्रवाल, जतिन जॅट, मोहित अग्रवाल,  सुभाष मकरंदी, चेतन सूरी, राकेश चोपड़ा, कुलदीप शर्मा,प्रकाश बठला, विक्की बठला, लवली बठला, विशाल अग्रवाल, अमित अग्रवाल, सुमित अग्रवालश्री सत्यनारायण मंदिर के नरेश गोसाईसंदीप शर्मा, पंडित संजीव शर्मा , सुदेश अग्रवाल,चेतन सूरी, पवन धीर, विजय खौसला, प्रवीण गुप्ता, पार्षद मुनीष अग्रवाल, विकास गुप्ता , भारत भूषण लक्की के अलावा बड़ी संख्या में भक्तजन गणमान्य शामिल थे।

 

 

 

Leave a Comment