



कपूरथला, 15 अप्रैल
संगीतमयी श्री राम कथा वेला में प्राचीन श्री राधा कृष्ण रानी साहिबा मंदिर कपूरथला प्रांगण में पधारे देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने शिव चरित्र का सुन्दर वर्णन किया। व्यास ने मां पार्वती के जन्म, कामदेव के भस्म होने और भगवान शिव द्वारा विवाह के लिए सहमत होने की कथा सुनाई। श्री राम कथा में देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने श्रोताओं को सुनाते हुए कहा कि राजा दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर का अपमान करने के लिए महायज्ञ का आयोजन किया था। जिसमें उसने भगवान शिव को छोड़कर समस्त देवताओं को आमंत्रण भेजा था। भगवान शंकर के मना करने के बाद भी सती अपने पिता के यहां जाने की इच्छा जताई तो भगवान शंकर ने बिना बुलाए जाने पर कष्ट का भागी बनने की बात कही। श्री देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने श्रोताओं को सुनाते हुए कहा कि इसके बाद भी सती नहीं मानी और पिता के घर चली गईं। पिता द्वारा भगवान शंकर के अपमान पर सती ने हवन कुंड में कूदकर खुद को अग्नि में समर्पित कर दिया। इसके बाद भगवान शंकर के दूतों ने यज्ञ स्थल को तहस–नहस कर दिया। माता सती के अग्नि में प्रवाहित होने के बाद तीनों लोकों को भगवान शिव के कोप भाजन का शिकार होना पड़ा। श्री देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने बताया कि किसी भी स्थान पर बिना निमंत्रण जाने से पहले इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि जहां आप जा रहे है वहां आपका, अपने इष्ट या अपने गुरु का अपमान हो। यदि ऐसा होने की आशंका हो तो उस स्थान पर जाना नहीं चाहिए। चाहे वह स्थान अपने जन्म दाता पिता का ही घर क्यों हो। कथा के दौरान सती चरित्र के प्रसंग को सुनाते हुए भगवान शिव की बात को नहीं मानने पर सती के पिता के घर जाने से अपमानित होने के कारण स्वयं को अग्नि में स्वाह होना पड़ा। श्री राम कथा में देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने श्रोताओं को सुनाते हुए कहा कि शुकदेव बाबा ने महाराज परीक्षित को भागवत कथा श्रवण कराते हुए बताया कि राजन् ! मनु–शतरूपा की कन्या आकूति का विवाह पुत्रिका धर्म के अनुसार रूचि प्रजापति से तथा प्रसूति कन्या का विवाह ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति से किया। उससे उन्होंने सुंदर नेत्रों वाली सोलह कन्यायें उत्पन्न कीं। इनमें से तेरह कन्यायें (श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ही और मूर्ति) धर्म की पत्नियां बनीं। स्वाहा नाम की कन्या अग्निदेव, स्वधा नामक कन्या समस्त पितरों की तथा सती नाम की कन्या महादेव की पत्नी बनीं। सती अपने पतिदेव की सेवा में ही संलग्न रहने वाली थीं। दक्ष प्रजापति की सभी कन्याओं को संतान की प्राप्ति हुई, परंतु सती के पिता दक्ष ने बिना ही किसी अपराध के भगवान् शिवजी से प्रतिकूल आचरण किया था, इसीलिए युवावस्था में ही क्रोधवश योग के द्वारा स्वयं ही अपने शरीर का त्याग कर देने से सती को कोई संतान न हो सकी। चक्रवर्ती सम्राट के पद का त्याग करने वाले महाराज परीक्षित ने श्री शुकदेव जी से पूछा–भगवान ! प्रजापति दक्ष तो अपनी सभी कन्याओं से विशेष प्रेम करते थे, फिर चराचर के गुरु वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम श्री महादेवजी के प्रति द्वेष तथा प्रगाढ़ स्नेहा सती के प्रति अनादर क्यों किया? श्री शुकदेवजी ने कहा– राजन् ! एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने–अपने अनुयायियों के सहित एकत्र हुये थे। श्री राम कथा में देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने श्रोताओं को सुनाते हुए कहा कि उसी समय प्रजापति दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश किया। सूर्य के समान तेजोमय प्रजापति दक्ष को सभी सभासदों ने उठकर सम्मान दिया। ब्रह्माजी व महादेव ही अपने–अपने आसनों पर बैठे रहे। दक्ष प्रजापति जगत्पिता ब्रह्माजी को प्रणाम कर उनकी आज्ञा से अपने आसन पर बैठ गए। परंतु महादेव जी को पहले से बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूप में कुछ भी आदर न पाकर दक्ष क्रोधित हो, देवता और अग्नियों सहित समस्त ब्रह्मर्षि गणों से इस प्रकार कहने लगे– यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को धूल में मिला रहा है। इसने घमंड को धारण कर सत्पुरूषों के आचरण को लांछित व मटियामेट कर दिया है। इसने मेरी सावित्री–सरीसी मृगनयनी पवित्र कन्या का पाणिग्रहण किया था, इसलिए यह मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यही था कि यह उठकर मेरा सम्मान करता, मुझे प्रणाम करता, परंतु इसने वाणी से भी मेरा सत्कार नहीं किया। वास्तव में तो यह नाम भर का ही शिव है, परंतु यह है पूरा अशिव–अमंगल रूप। दक्ष ने आचारहीन, भूतों के सरदार, मतवाले, पाखंडी, चिता की अपवित्र भस्म धारण करने वाले, भूत–प्रेत–प्रमथ तमोगुणी जीवों का नेता, पागल, नंग–धडं़ग घूमने वाला, श्मशान वासी आदि शब्दों के द्वारा आत्माराम शिव को बुरा–भला कहा, फिर भी महादेवजी ने कोई प्रतिकार नहीं किया, निश्चल भाव से बैठे रहे। श्री राम कथा में देवांशु गोस्वामी जी महाराज ने श्रोताओं को सुनाते हुए कहा कि इससे दक्ष का क्रोध और बढ़ गया और हाथ में जल लेकर शाप दिया कि ‘‘यह महादेव देवताओं में बड़ा ही अधम है। अब से इसे इंद्र–उपेन्द्र आदि देवताओं के साथ यज्ञ का भाग न मिले।’’ ऐसा कहकर अत्यंत क्रोधित हो उस सभा से निकलकर अपने घर चले गये। जब भगवान शंकर के अनुयायियों में अग्रगण्य नन्दीश्वर को दक्ष शाप की जानकारी हुई तब, क्रोध से तमतमाते हुए उन्होंने दक्ष तथा उन (ब्राह्मणों) को जिन्होंने दक्ष के दुर्वचनों का अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप देते हुए कहा– कि ‘‘जो मरण–धर्मा शरीर में ही अभिमान करके किसी से भी द्रोह न करने वाले भगवान् शंकर से द्वेष करता है, वह भेद बुद्धि वाला दक्ष तत्वज्ञान से विमुख ही रहे। इसने आत्मस्वरूप को भुला दिया है; यह साक्षात् पशु के समान है, अतः अत्यंत स्त्री लम्पट हो और महादेवजी के प्रति द्वेष तथा प्रगाढ़ स्नेहा सती के प्रति अनादर क्यों किया? श्री शुकदेवजी ने कहा– राजन् ! एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने–अपने अनुयायियों के सहित एकत्र हुये थे। उसी समय प्रजापति दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश किया। सूर्य के समान तेजोमय प्रजापति दक्ष को सभी सभासदों ने उठकर सम्मान दिया। ब्रह्माजी व महादेव ही अपने–अपने आसनों पर बैठे रहे। दक्ष प्रजापति जगत्पिता ब्रह्माजी को प्रणाम कर उनकी आज्ञा से अपने आसन पर बैठ गए। परंतु महादेव जी को पहले से बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूप में कुछ भी आदर न पाकर दक्ष क्रोधित हो, देवता और अग्नियों सहित समस्त ब्रह्मर्षि गणों से इस प्रकार कहने लगे– यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को धूल में मिला रहा है। इसने घमंड को धारण कर सत्पुरूषों के आचरण को लांछित व मटियामेट कर दिया है। इसने मेरी सावित्री–सरीसी मृगनयनी पवित्र कन्या का पाणिग्रहण किया था, इसलिए यह मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यही था कि यह उठकर मेरा सम्मान करता, मुझे प्रणाम करता, परंतु इसने वाणी से भी मेरा सत्कार नहीं किया। वास्तव में तो यह नाम भर का ही शिव है, परंतु यह है पूरा अशिव–अमंगल रूप। दक्ष ने आचारहीन, भूतों के सरदार, मतवाले, पाखंडी, चिता की अपवित्र भस्म धारण करने वाले, भूत–प्रेत–प्रमथ तमोगुणी जीवों का नेता, पागल, नंग–धडं़ग घूमने वाला, श्मशान वासी आदि शब्दों के द्वारा आत्माराम शिव को बुरा–भला कहा, फिर भी महादेवजी ने कोई प्रतिकार नहीं किया, निश्चल भाव से बैठे रहे। इससे दक्ष का क्रोध और बढ़ गया और हाथ में जल लेकर शाप दिया कि ‘‘यह महादेव देवताओं में बड़ा ही अधम है। अब से इसे इंद्र–उपेन्द्र आदि देवताओं के साथ यज्ञ का भाग न मिले।’’ ऐसा कहकर अत्यंत क्रोधित हो उस सभा से निकलकर अपने घर चले गये। जब भगवान शंकर के अनुयायियों में अग्रगण्य नन्दीश्वर को दक्ष शाप की जानकारी हुई तब, क्रोध से तमतमाते हुए उन्होंने दक्ष तथा उन (ब्राह्मणों) को जिन्होंने दक्ष के दुर्वचनों का अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप देते हुए कहा– कि ‘‘जो मरण–धर्मा शरीर में ही अभिमान करके किसी से भी द्रोह न करने वाले भगवान् शंकर से द्वेष करता है, वह भेद बुद्धि वाला दक्ष तत्वज्ञान से विमुख ही रहे। इसने आत्मस्वरूप को भुला दिया है; यह साक्षात् पशु के समान है, अतः अत्यंत स्त्री लम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुंह बकरे का हो जाय। यह मूर्ख कर्ममयी अविद्या को ही विद्या समझता है, इसलिये यह और जो भगवान शंकर का अपमान करने वाले इस दुष्ट के अनुगामी हैं, वे सभी जन्म–मरण रूपी संसार चक्र में पड़े रहें। ये ब्राह्मण लोग भक्ष्याभक्ष्य के विचार को त्यागकर केवल पेट पालने के लिए ही विद्या, तप और व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियों के सुख को ही सुख मानकर उन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख मांगते भटका करें। ब्राह्मण कुल के लिए नन्दीश्वर के मुख से शाप सुनकर बदले में भृगुजी ने दुस्तर शापरूप ब्रह्मदंड दिया– ‘‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तों के अनुयायी हैं, वे सत्–शास्त्रों के विरूद्ध आचरण करने वाले और पाखंडी हों। श्री शुकदेव जी कहते हैं– राजन् ! इतना कहकर भगवान शंकर मौन हो गए। उन्होंने देखा कि दक्ष के यहां जाने देने अथवा न जाने देने–दोनों ही अवस्थाओं में सती के प्राण त्याग की संभावना है। सती भी दुविधा में पड़ गयीं; कभी अंदर कभी बाहर। शोक और क्रोध ने उनके चित्त को बेचैन कर दिया। बुद्धि मूढ़ हो गयी और लंबी–लंबी सांस लेती हुई भगवान् शिव को छोड़कर अपने माता–पिता के घर चल दीं। सती को फुर्ती से अकेली जाते देख श्रीमहादेव जी के हजारांे सेवक सती के संपूर्ण उपहारों को साथ लेकर भगवान् के वाहन वृषभराज के सहित सती के समक्ष स्थित हो गए। सती को बैल पर सवार करा दिया और चल पड़े। दक्ष की यज्ञशाला में सती का पदार्पण हुआ– ‘पिता भवन जब गई भवानी दच्छ त्रास काहुं न सनमानी।’’ परंतु दक्ष के भय से माता और बहनें अवश्य प्रसन्न हुईं किंतु किसी ने भी उनका आदर नहीं किया।सती का तो अनादर हुआ ही, उस यज्ञ में भगवान् शंकर को भी कोई भाग नहीं दिया गया है इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ और देवी सती ने कहा – पिताजी ! भगवान् शंकर से बड़ा तो संसार में कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियों के प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है न कोई अप्रिय। सभी देवता–दानव, ऋषि–मानव उनका आदर करते हैं, वे परब्रह्म परमात्मा हैं। उनसे आपने द्वेष किया। आप जैसे दुर्जन से संबंध होने के कारण मुझे लज्जा आती है। इसलिए आपके अंग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर को त्याग दूंगी। श्री शुकदेव जी कहते हैं– राजन्। ऐसा कहकर सती मौन होकर उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयी। भगवान् शंकर का चिंतन करते–करते योगाग्नि के द्वारा शरीर को जलाते हुए प्राण त्याग दिया। दक्ष को सभी असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही कहते हुए उस दक्ष के दुव्र्यवहार की निंदा करने लगे। हाहाकार मच गया।शिवजी के पार्षद दक्ष को मारने दौड़े, परंतु भृगु ने यज्ञ से ‘ऋभु’ नामक तेजस्वी देवताओं को प्रगट किया और शिवजी के गणों को भगा दिया। सती के प्राण त्याग का समाचार महादेवजी ने देवर्षि नारद के मुख से सुना और क्रोधावेश में अपनी एक जटा से विशालकाय कालरूप विभिन्न अस्त्र–शस्त्रों से युक्त हजार भुजाओं वाले वीरभ्रद को प्रगटकर दक्ष तथा उसके यज्ञ को नष्ट करने की आज्ञा दे दी। वीरभद्र ने दक्ष यज्ञ नष्ट कर दिया और दक्ष का सिर यज्ञ की दक्षिणाग्नि में डाल दिया। वीरभद्र वापिस कैलाश लौट आए। ब्रह्मादि देवताओं ने कैलाश जाकर भगवान् शिव की स्तुति की और दक्ष यज्ञ की पूर्णता का वरदान प्राप्त कर दक्ष को बकरे का सिर लगाकर यज्ञ को पूर्ण किया। दक्ष को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई। माता सती ने हिमालय राज के गृह में पार्वती के रूप में जन्मधारण कर पुनः भगवान् शिव को प्राप्त किया, क्योंकि उन्होंने मरते समय यही वरदान मांगा था– सती मरत हरिसन बरू मांगा। जनम–जनम शिवपद अनुरागा। कथा विश्राम के बाद मुख्य यजमान ने आरती उतारी। इस अवसर पर मंदिर वेल्फेयर सोसायटी के प्रधान मोहित अग्रवाल व महासचिव शशि पाठक, वरुण शर्मा, अजीत कुमार, विक्रम गुप्ता, साहिल गुप्ता, वालिया, मोनू खन्ना, सुदेश अग्रवाल, जतिन जॅट, मोहित अग्रवाल, सुभाष मकरंदी, चेतन सूरी, राकेश चोपड़ा, कुलदीप शर्मा,प्रकाश बठला, विक्की बठला, लवली बठला, विशाल अग्रवाल, अमित अग्रवाल, सुमित अग्रवाल, श्री सत्यनारायण मंदिर के नरेश गोसाई, संदीप शर्मा, रोशन लाल सभ्रवाल, पंडित संजीव शर्मा , सुदेश अग्रवाल,चेतन सूरी, पवन धीर, विजय खौसला, प्रवीण गुप्ता, पार्षद मुनीष अग्रवाल, विकास गुप्ता , भारत भूषण लक्की ,पवन कालिया के अलावा बड़ी संख्या में भक्तजन व गणमान्य शामिल थे।